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वीणा वादिनी : जो अपनी कृपा से मानव जीवन को सरस कर दे-वही सरस्वती

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डॉ. जंग बहादुर पाण्डेय, रांची:
परमेश्वर की तीन महान शक्तियां हैं-महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती।धन के लिए लक्ष्मी, शक्ति के लिए काली और विद्या के लिए सरस्वती की समाराधना की जाती है। सरस्वती का सरलार्थ है गतिमती। वाग्देवी या सरस्वती आध्यात्मिक दृष्टि से निष्क्रिय ब्रह्म को सक्रियता प्रदान करने वाली हैं। सरस कृतवती इति सरस्वती:। अर्थात् जो अपनी कृपा से मानव जीवन को सरस कर दें, वही सरस्वती हैं। इन्हें अनेक नामों से पुकारा जाता है यथा: आद्या,गिरा,श्री, वाणी, ईश्वरी , भारती, ब्राह्मी, भाषा, महाश्वेता, वागीशा, वागीश्वरी, विधात्री,शारदा,वीणावादिनी, वीणापाणि, पुस्तकधारिणी,जगद्  व्यापिनी,हरिहरदयिता आदि।इससे ज्ञात होता है कि इनकी महिमा अपरंपार एवम् अकथनीय  है। सरस्वतीस्तोत्रं में इनकी वंदना करते हुए इनका स्वरूप इस प्रकार वर्णित है:


या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता,
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युतशंकर प्रभृतिभिर्देवै: सदा वंदिता,
सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा।

अर्थात् जो कुंद के फूल ,चंद्रमा, हिम और मुक्ताहार के समान श्वेत हैं।जो उजले वस्त्रों से आवृत हैं,जिनके कर सुन्दर वीणा से सुशोभित हैं,जो श्वेत कमलासन पर विराजमान हैं,ब्रह्मा, विष्णु महेश आदि देवता सर्वदा जिनकी स्तुति करते रहते हैं,जो सभी प्रकार की जड़ताओं का विनाश करती हैं-वही भगवती सरस्वती मेरी रक्षा करें।

 


शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमाद्यां जगद् व्यापिनी,
वीणापुस्तकधारिणीमभयदां,जाड्यान्धकारापहाम्।
हस्ते स्फाटिकमालिकां,विदधतीं पद्मासने संस्थिता,
वंदे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्।

 

अर्थात् मैं, शुक्ल वर्णवाली,ब्रह्मविद्या के अंतिम सार,आद्याशक्ति,जगत में व्याप्त, वीणा और पुस्तक धारण करने वाली,अभय देने वाली,जड़ता रूपी अंधकार का नाश करने वाली,हाथ में स्फटिक की माला धारण करने वाली, पद्मासन पर बैठी हुई,बुद्धि देनेवाली  उस परमेश्वरी शारदा की वंदना करता हूँ।

इस श्लोक में मां सरस्वती के बड़े ही दिव्य एवम् भव्य रूप की झांकी प्रस्तुत की गई है। प्राय:इसी स्वरूप में इनकी मूर्तियाँ बनाई जाती हैं।सरस्वती का उज्ज्वल वर्ण ज्योतिर्मय ब्रह्मा का प्रतीक है। इनकी चारोँ भुजाएँ  चारों दिशाओं की प्रतीक हैं,जो सर्व व्याप्ति का लक्षण हैं। इनके एक हाथ में पुस्तक स्थूल रूप से ज्ञान प्राप्ति का प्रमुख साधन है और आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वज्ञानमय वेद का स्वरुप।दूसरे हाथ में माला है। स्थूल रूप से यह एकाग्रता का चिह्न है। किंतु सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर विष्णु की वैजंती और काली की मुण्डमाला तथा विश्वजननी मातृका की वर्णशक्ति की माला है।ये अपने दोनों हाथों से वीणा धारण किए हुई हैं।वीणा स्थूल रूप से जीवन-संगीत का प्रतीक है। हमारी जितनी क्रियाएँ और विचार हैं, उनका सर्जनात्मक नादरूप पूंजीभूत होकर महाविश्वसंगीत में परिणत हो जाता है।

सरस्वती कमल के आसन पर ज्ञान मुद्रा में विराजमान रहती हैं। कमल सृष्टि का प्रतीक है। इससे यही अभीष्ट है कि आद्या शक्ति सारी सृष्टि में व्याप्त हैं। कमल से निर्लिप्तता का भाव भी व्यक्त होता है।सृष्टि में रहकर भी सृष्टि के प्रभाव से मुक्त रहने की ओर सरोजासना का संकेतार्थ है। सरस्वती का वाहन राजहंस है, जो नीरक्षीर विवेक तथा गुण दोष विवेचन सामथ्यर्थ का प्रतीक है। सरस्वती का उज्जवल वर्ण ज्योतिर्मय ब्रह्म का प्रतीक है।ज्ञान की देवी होने के ही कारण इनका और इनके वाहन का वर्ण उज्ज्वल है। सरस्वती पूजन को केवल पोंगापंथीपन या रूढिवादिता की निशानी मानना उचित नहीं।विश्व का शायद ही ऐसा कोई देश हैं, जिसमें किसी न किसी रूप में विद्या देवी की उपासना न होती हो।वाणी के आलोक से अज्ञान की कुहेलिका दूर करने के लिए इनकी पूजा उपासना तो होनी ही चाहिए।

 


विद्या की अधिष्ठात्री मां शारदे विद्या की सर्वमान्य देवी हैं,उस विद्या की ,जो कामधेनु है,जो अखिल कामनाओं की पूर्ति करनेवाली है,जो अमृतत्व प्राप्त कराती है-विद्या अमृतमश्नुते तथा जो मुक्ति प्रदान करती है:-सा विद्या या विमुक्तये।वे साहित्य और संगीत की अधिष्ठात्री देवी हैं।साहित्य जो हमारे मुरझाए हृदय को हरा भरा कर देता है,जो हमारा अनुरंजन मनोरंजन ही नहीं करता वरन् जो हमारी चित्त वृतियों का परिष्कार भी करता है,जो हमें भौतिक आनंद ही नहीं वरन् ब्रह्मानंद सहोदर आनंद की उपलब्धि कराता है और जो टूटे हुए हृदय की महौषधि  है,जो देवदूतों की भाषा है,जो आत्मा के ताप को शांत करता है तथा जिसका अनुगमन स्वयं परमात्मा करता है।जिस साहित्य के बिना मानव पुच्छ-विषाणहीन पशुतुल्य है,उसी वरद् साहित्य और संगीत की वरदायिनी वागीश्वरी का नाम है सरस्वती।अत:जो जितना बड़ा कवि ,साहित्यकार, पंडित,ज्ञानी एवम् वक्ता है,उसपर मां सरस्वती की अनुकंपा का मेह उतना ही बरसा है।
यदि सरस्वती की कृपा हुई, तो हम कालिदास की तरह विश्व वंद्य हो सकते हैं।यदि ये मति फेर दें तो हम कैकेयी की भांति 'अजस पिटारी'बन जाएं:
नाम मंथरा मंद मति,दासी कैकेयी केर।
अजस पिटारी हाथ दई,गई गिरा मति फेर।।

महाकवि गोस्वामी तुलसीदास की अतिशय लोकप्रियता और उनके रामचरितमानस की सफलता का राज यही था कि उन्होंने वाणी-गणेश वंदना से ही अपने मानस का श्रीगणेश किया,वाग्देवी के प्रारंभिक अमृताक्षर 'व' से ही अपने रामचरित के मणि माणिक्य को संपुटित किया:
वर्णानामर्थसंघानां,रसानां छंद सामपि।
मंगलानां च कर्त्तारौ,वंदे वाणी विनायकौ।।

 

 

(लेखक रांची में रहते हैं।  रा़ंची विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।